ग्वार फसल की संपूर्ण विस्तारित जानकारी
ग्वार खरीफ ऋतु में उगाई जाने वाली फसल है इसका पौधा बहुत शाखिय एवम् सीधा होता है पौधे की लंबाई 30-90 सेमी तक होती है इसकी जड़े मिट्टी में काफी गहराई तक बढ़ती है । ग्वार में चित्र व गुलाबी रंग के फूल होते है । फलिया लंबी व रोंटेडर होती है हरी फलियो में इसके 100 ग्राम भाग में 81.0 ग्राम पानी 3.2 ग्राम प्रोटीन 0.4 ग्राम वसा 1.4 ग्राम खनिज 3.2 ग्राम रेशा और 10.8 कार्बोहाइट्रेड पाया जाता है इसके अलावा फलियों में कैल्शियम , फर्सफॉर्स , लोहा , विटामिन_ ए थाइमिन फोलिक अमल ओर विटामिन सी आदि भी उपस्थित रहते है।
ग्वार जानवरो के लिए एक पाउष्टिक आहार है । ग्वार के दानों ओर इसके चुरी जानवरो के खाने में प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए दिया जाता है ग्वार के बीज में लगभग 37-45 प्रोटीन , 1.4-1.8 पोटेशियम, 0.40-0.80 कैल्शियम 0.15-0.20 मैग्नीशियम पाया जाता है हरे चारे के रूप में इसेफलियां बनते समय पशुओं को खिलाया जाता है इस अवस्था में से प्रोटीन खनिज दोनों की अधिक मात्रा पाई जाती है गवार के दानों का 14 से 17% छिलका तथा 35 से 42% भाग पूर्ण होता है ग्वार के दोनों के भोग पोस्ट से ही ग्वार गम उपलब्ध होता है ग्वार के दाने में 30 से 35 प्रतिशत गोंद पाया जाता है।
गवार की एक मुख्य विशेषता यह है कि यह उनकी में आसानी से उगाई जा सकती है जहां दूसरी फसलें वरना बहुत ही कठिन होता है अतः कम पानी वाली पूजा में भी इसकी खेती बेहद सफलता पूर्ण की जा सकती है हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग ढाई लाख टर्न ग्वार गम अमेरिका इंग्लैंड जर्मनी जापान आदेशों को भेजा जाता है या निर्यात किया जाता है ग्वार गम का उपयोग औषधि निर्माण उद्योग कपड़ा उद्योग के साथ-साथ सामग्री के रूप में भी होता है इसके में लगभग 45% जाता है गवार की हरी फलियां सब्जी के रूप में भी उपयोग ली जा सकती है।
ग्वार की उत्पति एवम् वितरण - गवार की उत्पत्ति भारत में हुई है इसकी जंगली जातियां यहां नहीं पाई जाती है विश्व में सबसे अधिक ग्वार पैदा करने वाला भारत देश ही है विश्व का 75% ग्वार भारत में ही होता है भारत में ग्वार के कुल क्षेत्र का प्रत्याशी प्रतिशत व कुल उत्पादन का 68% योगदान राजस्थान से ही है इस तरह राज्य सत्र फल उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान प्रथम राज्य राजस्थान के चुरू से झुंझुनू श्रीगंगानगर नागौर जोधपुर जालौर पाली जैसलमेर बीकानेर के प्रमुख उत्पादक क्षेत्र एवं जिले हैं
ग्वार के लिए जलवायु - ग्वार सुखा सहन करने वाली फसल है उन स्थानों पर ग्वार की खेती बड़ी आसानी से की जा सकती है जहां 30 से 40 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा होती है बीज के अंकुरण में जड़ों के विकास के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना गया है ग्वार एक प्रकाशन शील्ड फसल है अतः इस फसल में फूल एवं फलियां का निर्माण केवल खरीद के मौसम में होता है इसलिए राज्य के शुष्क क्षेत्रों में इस फसल की खेती अधिक एवं सर्वाधिक जाती है।
मिट्टी - ग्वार के लिए अच्छे वायु संचार वाली दोमट मिट्टी बहुत उपयुक्त है अधिक भारी व अधिक अल की मिट्टी को छोड़कर सभी तरह की भूमि में इसकी खेती की जा सकती है मिट्टी हल्की सारी हो पीएच मान 7 से 8 हो ऐसी मिट्टी में ग्वार की पैदावार आसानी से ली जा सकती है या से बहुत आसानी से उगाया जा सकता है।
खेत तैयार करना - साधारणतया गर्मी में एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से एवं एक जुताई देसी हल्से कर एक बार पता लगा देना चाहिए खेत में खरपतवार को हटा देना चाहिए और इसकी बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी भी होना आवश्यक है।
ग्वार की उन्नत किस्म - ग्वार की मुख्य दो प्रकार की किस्में पाई जाती है नंबर एक के दाने व चारे के लिए एवं सब्जी के लिए।
बीज दार एवम् बीज उपचार - ग्वार की शुद्ध फसल के लिए 15 से 20 किलोग्राम पर हेक्टर एवं मिश्रित फसल के लिए 10 से 8 किलोग्राम एक्टर्विस पर्याप्त मात्रा है बुवाई से पूर्व बीजों को कवक जनित रोगों से बचाव हेतु 2 ग्राम कार्बन डाई जमीन राम साईं राम से उपचारित करें जीवाणु झुलसा रोग से बचाव हेतु 250 पीपी एस्ट्रो साइकिल 4 लीटर पानी में 1 ग्राम दवा 2 घंटे तक भिगोकर रखें खेतों में जहां पहली बारगवार मूवी जानी है बुवाई के पूर्व बीजों को राइजोबियम कल्चर एवं पीएसबी जीवाणु संवर्धन से उपचारित करके बोए ।
बुवाई की विधि और समय - ग्वार की बुवाई का सर्वोत्तम समय मानसून की वर्षा प्रारंभ होते ही इसकी बुआई कर देना वर्षा देवी से होने पर अगस्त के प्रथम सप्ताह तक बुवाई कर देनी चाहिए ग्वार के लिए पति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर।
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तिल फसल की संपूर्ण जानकारी
तिल मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं काले एवं सफेद तिल का प्रयोग का मुख्य रूप से तेल निकालने विभिन्न प्रकार के पकवान बनाने वर्ष के समय और अनेक प्रकार के सुगंधित और औषधीय तेल बनाने में किया जाता है कि खली पशुओं को भी खिला जाती है यह सवाल में मीठे तथा चिकन में होते हैं शीतलता पौष्टिकता के 7 गुणों से भरपूर होने के कारण इनको स्वास्थ्यवर्धक भी माना जाता है हवन यज्ञ में उपयोग किया जाता है जबकि सफेद काले दोनों का प्रयोग तेल निकालने के व्रत के दौरान इनको फल स्वरुप लिया जाता है एक महत्वपूर्ण फसल है इसे तिलहन फसलों की रानी भी कहा जाता है तिल के बीज का प्रमुख उपयोग तेल तैयार करने तथा कुल उत्पादन का 20% भाग बीज के रूप में खाने में भी काम लिया जाता है इसके बीजों का प्रयोग रसोई घर में शक्कर के साथ मिलाकर तिलकुटा गजक रेवड़ी आदि बनाने में भी किया जाता है तिल के बीजों में 44 से 54% तक तेल प्राप्त होता है तेल में स्माल नामक पदार्थ की उपस्थिति के कारण इसे अधिक समय पर स्वच्छता भी रखा जा सकता है दिल की गलियों के लिए पोस्टिक आहार भी माना गया है इसे खाद के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है।
उत्पति - अधिकांश वैज्ञानिकों के मत अनुसार तिल की उत्पत्ति का स्थान या इसका श्रेय अफ्रीका को दिया जाता है भारतवर्ष में इसकी खेती सदियों से की जा रही है तथा इसका उपयोग पुराने समय से ही धार्मिक अवसर पर किया जा रहा है कुछ विद्वानों का मत है कि हिमालय का कोई स्थान ही तिल की उत्पत्ति का स्थल।
तिल का वितरण - विश्व में तिल के क्षेत्रफल एवं उत्पाद में भारत का सबसे प्रथम स्थान है भारत में राजस्थान गुजरात तमिलनाडु आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र उड़ीसा मध्य प्रदेश आदि राज्यों में तिल की खेती सबसे ज्यादा होती है राजस्थान में तिल की खेती के लिए चित्तौड़गढ़ सवाई माधोपुर उदयपुर जोधपुर पाली नागौर जालौर भीलवाड़ा अजमेर जिले सबसे प्रमुख है इसका क्षेत्रफल उत्पादन एवं उत्पादकता क्रमशः 4 पॉइंट 4700000 हेक्टेयर 1 पॉइंट 4900333 किलोग्राम हेक्टर है।
तिल फसल की जलवायु- तिल सामान्यता उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है अच्छी पैदावार के लिए नंबर सागर मौसम बहुत उपयोग माना गया है इसकी खेती के लिए उपयुक्त तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से 27 डिग्री सेल्सियस माना गया है यदि तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से नीचे होता है तो अंकुरण अवरुद्ध हो जाता है सामान्यतया यह हौसला 500 मिलीमीटर वर्षा वाले क्षेत्र में खरीद की ऋतु में बोई जाती है तथा काफी हद तक सुखासन कर सकती है लेकिन अंकुरण के लिए पर्याप्त नमी होना आवश्यक है अधिक वर्षा वाले क्षेत्र की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं।
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